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होली के दिनों मे गाँव की चौपाल मे लगती है गेर

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  चंग और ढ़ोल की थाप के साथ तलवारों या लट्ठो की टंकार का अनूठा मेल जोड़ सच मे अविस्मरणीय होता है गेर। आज भी गाँव मे होली के दिनों मे गाँव की चौपाल मे लगती है गेर ......चंग और ढ़ोल की एक विशेष नांद जो वहाँ खड़े हर एक के रोम रोम मे जोश भर देती है ....ताल मे ताल मिलाते एक विशेष पोशाक पहने (औंगी जो घाघरे जैसे घुमावटी सलव्टो वाली होती हैं ।) लोग वहाँ के माहौल मे चार चाँद लगा देते हैं .......औंगी के मड्ते घेर (पोशाक का वृतिय फैलाव ) और सर पर पाग के संग लठ या तलवार धारि गेरिया (औंगी धारि आदमी ) और फिर अपनी अक्ष के अनुदिश एक का घुमाव तथा अगले गेरिए का उसकी विपरीत दिशा मे घुमाव के संग एक के अंदर एक बनाए गोलाकार घेरो की परिधि अनुदिश गति मे ताल पर ताल ठोकते हुए गेरिये हर किसी का मन मोह लेते है । गेर जैसे कई पारंपरिक आयोजन हमारी पुरातन संस्कृति और रीति रिवाजो को जिंदा बनाए है    आज की यूवा पीढ़ी की पारंपरिक रिवाजो से उठता मन आने वाले कल की चिंता को बाध्य कर रहा है जो की वास्तव मे विचारणीय है ।